ग्वालियर | चार दशक से प्रदेश से लेकर केंद्र तक की राजनीति में खासा दखल रखने वाला ग्वालियर का जयविलास महल अब पूरी तरह भाजपामय हो गया है। पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस से नाता तोड़कर भाजपा में शामिल होने से पहले तक सिंधिया परिवार के इस प्रासाद को लेकर अंचल की राजनीति में एक जुमला- एक महल के दो दरवाजे, खासा चर्चा में रहा है। इस जुमले के पीछे कारण यहां रहने वालों का अलग-अलग दलों की राजनीति से जुड़ना रहा। जिसने इसे राजनीतिक ही नहीं पारिवारिक तौर पर भी कांग्रेस और भाजपा में बांट रखा था। जयविलास के एक हिस्से में पूर्व मंत्री और वर्तमान में भाजपा विधायक यशोधरा राजे सिंधिया का निवास है तो दूसरी तरफ कांग्रेस में रहे पूर्व मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया का। अब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी भाजपा का दामन थाम लिया है तो सब कुछ भाजपा मय हो गया है।
जयविलास की राजनीति का सफर कांग्रेस से शुरू होता है।
1956 में न चाहते हुए भी विजयाराजे सिंधिया ने गुना संसदीय सीट से चुनाव लड़ा । इसी सीट से वे 1961 में भी जीतीं। 1967 में राजनीतिक मतभेदों के चलते उन्होंने कांग्रेस की जगह करैरा सीट से जनसंघ के टिकट पर विधानसभा और स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर गुना सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीतीं। इसके बाद उन्होंने संसद की जगह विधानसभा में जाने का फैसला लिया और प्रतिपक्ष की नेता बनकर गोविंद नारायण सिंह की मदद से पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को गिरा दिया। इस सबके बाद राजनीतिक तौर पर जयविलास के दो खेमो में बंटने की कहानी का सिलसिला 1975 से शुरू होता है। देश में लगाए आपातकाल के दौरान पहले भारतीय जनसंघ और बाद में भाजपा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली विजयाराजे सिंधिया गैर कांग्रेसी नेताओं के साथ जेल में थीं।
1971 में अटल बिहारी वाजपेयी के समक्राष जनसंघ की सदस्यता लेकर गुना से चुनाव लड़ने वाले माधवराव सिंधिया को 1979 में कांग्रेस की सदस्यता लेना पड़ी। यहीं से जयविलास पारिवारिक और राजनीति तौर से दो हिस्सों में बंटा। एक हिस्सा में रानीमहल यानी जनसंघ और भाजपा, राजमाता विजयाराजे सिंधिया और बाद में यशोधरा राजे सिंधिया का निवास। और दूसरा- कांग्रेस यानी जयविलास, जो माधवराव सिंधिया और अब ज्योतिरादित्य सिंधिया का निवास है।
दलगत राजनीति और वैचारिक मतभेदों के चलते यहां रहने वालों ने कई बार तो अपना रास्ता तक बदला। जनसंघ और भाजपा की राजनीति करने वालों की भीड़ एक दरवाजे पर खड़ी दिखी तो कांग्रेस की राजनीति करने वाले दूसरे दरवाजे पर। एहतियात के तौैर पर दोनों ही दलों के लोगों ने सार्वजनिक तौर पर एक-दूसरे से खासा फासला भी रखा, जो धीरे-धीरे बढ़ता गया। चार दशक बाद अब दलगत फासला खत्म होने से सब कुछ भाजपामय हो गया है।