अब “जनसंख्या रजिस्टर” में उलझा 

“नागरिकता संशोधन” का उठा विवाद, अब “जनसंख्या रजिस्टर” में उलझा


 


– प्रणव बजाज
……लोकसभा और राज्यसभा में पारित विधेयक को राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद कानून बने नागरिकता संशोधन अधिनियम की हिंसक खिलाफत की आंच अब सरकार की सख्ती से मंद भले ही हो रही हो, लेकिन इस संशोधन के साथ ही नेशनल रजिस्ट्रेशन ऑफ सिटीजनशिप यानी एनआरसी के एक साथ विरोध और दोनों को उलझा दिए जाने से उपजा विरोध अब इसमें एनपीआर को भी जोड़ दिए जाने से देश की सियासत में जारी उबाल और बवाल बढ़ता ही जा रहा है। देखा जाए तो सीएए, एनआरसी और एनपीआर में से कोई भी नया नहीं है। नागरिकता कानून जिसमें शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है, उतना ही पुराना है जितना भारत के विभाजन का मामला। नेहरू-लियाकत समझौता भी धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने देश में सुरक्षा और संरक्षा देने के बारे में ही था।

……कांग्रेस की सरकारों में भी पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए धार्मिक अल्पसंख्यक शरणार्थियों को नागरिकता दी ही जाती थी। इसी तरह कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार के वक्त में हुए असम समझौते के बाद एनआरसी उस राज्य में लागू करने की बात शुरू हुई थी। जिसे असम में अभी सुप्रीम कोर्ट के आदेश और निर्देशन में लागू करने की प्रक्रिया जारी है, जिसका हिंसक और अहिंसक दोनों का तरह का विरोध हुआ है।

…….पूरे देश में एनआरसी लागू नहीं किए जाने के प्रधानमंत्री के सार्वजनिक बयानों के बावजूद इस मामले पर कुहासे की वजह सीएबी पर राज्यसभा मेंं बहस का जवाब देते हुए गृहमंत्री अमित शाह की वो टिप्पणी है जिसमें उन्होंने तैश मे यह कह दिया था कि देश में एनआरसी लागू होकर रहेगी और हम इसे 2024 तक लागू करके रहेंगे।

……..इसी बयान और इसी बयान में नेशनल पापुलेशन रजिस्टर यानी एनपीआर के सियासी विरोध की वजह भी है। विपक्ष खासकर कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर ही भाजपा की मंशा से भयाक्रांत लग रही है।

देखा जाए तो एनपीआर लागू करने की बात की शुरुआत अटल सरकार में हुई थी, लेकिन इसके बाद की कांग्रेसनीत् सरकार ने ही उस पर अमल शुरू किया और यह योजनाएं बनाने के लिए एक आवश्यक कदम है और इसका विरोध अनावश्यक रूप से सीएए, एनआरसी के जारी विरोध के बहाने किया जा रहा है।

……..डिटेंशन कैंप की शुरुआत का मामला ,एनआरसी, एनपीआर और डिटेंशन सेंटर पर बयानबाजी एनआरसी पर चर्चा और विरोध प्रदर्शनों के बीच डिटेंशन सेंटर्स का मुद्दा भी गरमा गया है। सरकार इस पर बचाव की मुद्रा में भले आ गई हो, लेकिन डिटेंशन सेंटर्स की शुरूआत भी असम समझौते के बाद ही कांग्रेस राज में ही हो गई थी। अब सरकार इससे इंकार कर रही है और प्रधानमंत्री झूठ है झूठ है झूठ है कहकर नकार रहे हैं, लेकिन घुसपैठियों को डिटेन करके रखना गलत कैसे हो सकता है। विरोध प्रदर्शनों से बैकफुट पर आई सरकार को इसके सच को पूरी ईमानदारी से बताना चाहिए, ताकि उसी के मुताबिक विपक्षी दल भ्रम फैला रहे हैं, तो उसे दूर करने का काम किसका है?

……इस बीच मीडिया के अलावा सोशल मीडिया पर इन मामलाें को लेकर कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के दौरान के तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिंदबरम से लेकर कांग्रेस नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला से लेकर कुछ न्यूज चैनलों के एनआरसी पर पुराने कार्यक्रमों के वीडियो भी जमकर  शेयर किए जा रहे हैं। सीएए के विरोध में राज्य सरकारों के प्रदर्शन नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ कांग्रेसनीत् राज्य सरकारों के मुख्यमंत्रियों के विरोध प्रदर्शन ने केंद्र राज्य संबंधों और संविधान के व्यवस्था को लेकर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। इन राज्यों की सरकारों ने साफ तौर पर इस संशाेधित कानून को अपने राज्य में लागू करने से न केवल इंकार किया है बल्कि इसके खिलाफ खुद मुख्यमंत्री मैदान में सड़़क पर उतरे हैं।

…..सवाल ये है कि क्या यह विरोध जायज है? क्या यह केंद्र और ऐसी राज्य सरकारों के बीच भविष्य में कोई नए संवैधानिक संकट का कारण नहीं बनेगा?

कई मोर्चों पर नाकाम दिख रही सरकार

राजनीतिक विरोध के चलते ध्रुवीकरण को खुद के मुफीद बनाने का एक और मौका हासिल करने के रूप में देख रही होगी। भाजपा नेताओं के बयानों और उनके समर्थकों के सोशल मीडिया पर जंग की मुद्रा ठीक वैसे ही है जैसी चुनाव के वक्त में होती है और कांग्रेस और उसके समर्थक बचाव की मुद्रा में जाते दिख रहे हैं।

इधर  भीड़ की शक्ल नहीं होती, टूट रहा है ये मिथ भीड़ की शक्ल नहीं होती, ये मिथ न जाने कब से चला आ रहा था लेकिन अब यह टूट रहा है। भीड़ की आड़ में सड़क पर साधारण मारपीट से लेकर दंगे तक में भीड़ के नाम पर सामान्य अपराध से लेकर सुनियोजित जघन्य अपराध और षड्यंत्र छुपाए जाते रहे हैं और गुनहगार कानून से बचकर जन नेता तक बनते रहे हैं।

…….सोशल मीडिया की दुधारी तलवार एकतरफ लोगों उकसाने के षड्यंत्र का औजार बन गई है तो दूसरी तरफ वह षडयंत्र की पहचान का टूल भी साबित हो रही है। भीड़ के उपद्रव में सीसीटीवी, द्रोण कैमरों की आंखों से भीड़ के वे चेहरे सामने आने लगे हैं जिनका दिमाग लोगों की नासमझी को दंगे में बदलते हैं।

……..नागरिकता संशोधन कानून पर फैलाए गए भ्रम और उसे एनआरसी से गड्डमड्ड करने से डरा दिए गए लोगों के हाथों में पत्थर थमाने वालों की निशानदेही शुरू हुई है। सरकार ने देश की संपत्ति को नष्ट करने के अलोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शनों पर सख्ती में भीड़ के चेहरों की शिनाख्त शुरू की है। उपद्रवियों से नुकसान की भरपाई की वसूली कितनी हो पाएगी, यह अभी सामने आना बाकी है। लेकिन यह लोकतांत्रिक प्रदर्शनों की ताकत को फिर स्थापित करने की तरफ ले जाएगा, यह उम्मीद की जाना चाहिए हैदराबाद में गैंग रेप और हत्या के आरोपियों की पुलिस कस्टडी में एनकाउन्टर में मौत के मामले में जिस तरह जनता ने पुलिस पर फूल बरसाए थे और देश भर में इसे वीरता की तरह दिखाने की कोशिश हुई और विरोध के तार्किक सवाल भी उठे, उस पखवाडे में ही दिल्ली से लेकर अहमदाबाद तक पुलिस के उन्मादी भीड़ से पिटने के दृश्य सामने आए। पुलिस की निरीहता पूरे देश ने देखी। यह निश्चित तौर पर पुलिस की कार्यप्रणाली और स्थिति का अनुमान लगाने और निपटने में असफलता का नमूना है।

……..पुलिस की निरीहता द्रश्य भर है, हकीकत यही है कि पुलिस निरीह नहीं होती, वह देश के अलग-अलग हिस्सों में पहले भी और अब भी सामने आता ही रहता है। मुंह से ठांय-ठांय करने की आवाज निकालती उप्र पुलिस से लेकर उप्र की ही पीएसी के सामूहिक नरसंहार के दमनात्मक चरित्र को लोग भूले नहीं हैं।देश को विरोध की हिंसक राजनीति में झौकने वाली सियासी जमातो का नफा नुकसान कितना हुआ या हुआ होगा या होगा, यह किसी चुनाव में ही नतीजो से पता चल सकेगा लेकिन देश की संपत्ति और एकता को हुआ नुकसान साफ दिख रहा है। उपद्रव पर नियंत्रण का अनुमान लगाने में नाकाम सरकार और पुलिस प्रशासन तंत्र अब उपद्रव करने वाली भीड़ के चेहरे बेनकाब करने में सफल रहती है तो भविष्य के लिए यह कहा जा सकता है कि भीड़ का चेहरा होने का मिथ पूरी तरह टूट सकेगा और देश की संपत्ति नष्ट करने की प्रवृत्ति पर लगाम लग सकेगी।