नई दिल्ली./ मोहम्मद जुबैर को उनके नाम से ज्यादा लोग नहीं पहचानते, लेकिन उनकी तस्वीर देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया ने देखी है। वह तस्वीर दिल्ली दंगे की सबसे दर्दनाक तस्वीरों में शुमार है। वह तस्वीर, जिसमें लहूलुहान होकर जमीन पर गिरे एक व्यक्ति को चारों ओर से घेरकर दंगाई लाठी-डंडों से पीट रहे हैं। दिल्ली में हुई क्रूरता का प्रतीक बनी इस तस्वीर में जो लहूलुहान होकर अधमरा पड़ा है, वे हैं 37 साल के मोहम्मद जुबैर। बीते 19 साल से चांदबाग में रहने वाले जुबैर कूलर ठीक करने का काम करते हैं। सियासी मसलों से दूर रहने वाले जुबैर बताते हैं कि नागरिकता संशोधन कानून को लेकर चल रहे विरोध प्रदर्शनों में उन्होंने कभी हिस्सा नहीं लिया। सोमवार की सुबह वे खुश थे, क्योंकि उन्हें इज्तिमा में शामिल होने जाना था। सुबह नए कपड़े पहन दुआ के लिए कसाबपुरा की ईदगाह के लिए निकल गए। उस दिन क्या, कब और कैसे हुआ इसका बारे में विस्तार से बताते हुए ज़ुबैर कहते हैं- ‘ईदगाह में दुआ करीब साढ़े बारह बजे खत्म हुई। इसके बाद मैंने वहीं लगी दुकानों से बच्चों के लिए हलवा पराठा, दही बड़े और दो किलो संतरे खरीदे। बच्चों को सालभर इज्तिमा का इंतजार रहता है। उन्हें पता होता है कि इज्तिमा से लौटकर आने वाला उनके लिए हलवा और खाने-पीने की अन्य चीजें लेकर आएगा। खाने-पीने का सामान लेकर चांद बाग की बस पकड़ी। रास्ते में ही था जब मुझे मालूम हुआ कि मेरे घर के की तरफ दंगा हो रहा है। इस कारण पांचवें पुश्ते पर ही उतर गया।’ ‘खजूरी में दंगे हो रहे थे तो मैंने भजनपुरा मार्केट की तरफ से वापस लौटने की सोची। वहां पहुंचा तो दोनों ओर से तेज पत्थरबाजी हो रही थी। मुझे सड़क के दूसरी तरफ अपने घर जाना था तो मैं वहां बने अंडर-पास की तरफ जाने लगा। तभी कुछ लोगों ने मुझे रोका और दूसरी तरफ से जाने को कहा। ये लोग पत्थरबाजी में शामिल नहीं थे, इसलिए उनकी बात पर भरोसा कर लिया। मुझे लगा कि वे मेरी सुरक्षा के लिए दूसरी ओर से जाने को बोल रहे हैं। नहीं पता था कि मुझे दंगाइयों की तरफ भेज रहे हैं। मैं जैसे ही दूसरी तरफ पहुंचा, कई लोगों ने मुझे घेर लिया और मारो-मारो कहने लगे। इज्तिमा से लौट रहा था लिहाज़ा मजहबी लिबास में था। उन्होंने दूर से मुझे पहचान लिया। शुरुआत में मैंने उनसे कहा भी कि भाई मेरा कसूर तो बता दो, लेकिन वहां कोई सुनने को तैयार नहीं था। उन्हीं में से किसी ने पहले मेरे सिर पर लोहे की रॉड मारी और उसके बाद तो पता नहीं कितने ही लोग लाठी-डंडों और सरियों से मुझे मारने लगे। भीड़ में एक आदमी बाकियों को रोक भी रहा था और मुझे वहां से जाने देने की बात कह रहा था। लेकिन वो भी शायद अकेला था।’ ‘इसके बाद मुझे बेहोशी होने लगी थी। मुझे बस इतना याद है कि मेरे सर से खून बह रहा था और मैं जमीन पर गिर पड़ा था। मुझे लगा था कि मैं मर जाऊंगा। मैंने कलमा पढ़ना शुरू कर दिया था। उस वक्त दोपहर के करीब तीन बजे होंगे। जिस जगह मुझ पर हमला हुआ वहां पुलिस का कोई भी जवान नहीं था। हां, वहां से कुछ दूरी पर पुलिस गश्त जरूर कर रही थी। सड़क पर ही बेहोश हो जाने के बाद मुझे बस धुंधला-धुंधला ही याद है कि क्या हुआ। इतना याद है कि चार लोग मुझे उठाकर कहीं ले गए थे। फिर जब मुझे एंबुलेंस में डाला जा रहा था तो उसकी धुंधली सी तस्वीर जेहन में है। लेकिन ये कौन लोग थे, कहां से आए, मुझे नहीं पता। मुझे शाम करीब छह बजे होश आया। तब मैं जीटीबी अस्पताल के एक स्ट्रेचर पर पड़ा था। कोई लगातार मुझसे पूछ रहा था कि मेरे साथ कौन आया है, पर मेरे पास जवाब नहीं था। सिर पर टांके लगे थे। मुझे बताया गया कि जीटीबी अस्पताल पहंचने से पहले सिर पर टांके लगाए जा चुके थे। इसका मतलब कहीं और ले जाया गया, जो मुझे याद नहीं।’ जिसने भी मुझे अस्पताल पहुंचाया वो लोग मुझे वहां छोड़कर जा चुके थे। वहां मैंने बैठने की कोशिश की तो बैठ न सका। मैंने स्ट्रेचर पर लेटे-लेटे दो बार उल्टी कर दी थी। अस्पताल के कर्मचारी मुझे एक्स-रे कराने को बोल रहे थे, लेकिन मैं अकेला था। मुझमें इतनी ताकत भी नहीं थी कि मैं किसी को फोन करके बुला सकूं। अस्पताल में मौजूद व्यक्ति ने मेरी मदद की और एक्स-रे करवाया। करीब सात बजे मैं भाई को फोन करने की स्थिति में आ पाया। पर वह चांदबाग में था, जहां दंगे जारी थे। वो घर से निकलने की स्थिति में नहीं था। फिर बहन-बहनोई को फोन किया, जो कहीं ओर रहते हैं। वो लोग अस्पताल पहुंचे। मेरा बचना करिश्मे जैसा है।’ जुबैर बार-बार कराहते हुए आपबीती सुना रहे हैं। उनके पूरे शरीर में चोट के निशान हैं, गर्दन से लेकर चेहरे, हाथ और कंधों पर सूजन है और पसलियों में रह-रह कर दर्द उठ रहा है। वे कहते हैं- ‘डॉक्टर ने मुझे सीटी स्कैन की लिए बोला था, लेकिन अस्पताल की मशीन खराब थी, इसलिए सीटी स्कैन न हो सका।’ ओखला में दुकान चलाने वाले ज़ुबैर के 24 वर्षीय भतीजे रेहान बताते हैं- ‘सोमवार शाम तक चाचू की तस्वीर वायरल हो चुकी थी। हमें भी इंटरनेट पर उनकी तस्वीर देखकर ही इस बारे में मालूम हुआ। तब हमने रिश्तेदारों को फोन लगाए और हम उनके पास पहुंचे।’ जुबैर अपनी तस्वीरों के बारे में कहते हैं- ‘मुझे नहीं पता था कि मेरी तस्वीरें वायरल हुई हैं। मैं उन तस्वीरों को देख पाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं।’ इस हिंसा के बारे में जुबैर कहते हैं, ‘किस्मत ने मेरा साथ दिया कि मैं जिंदा हूं। कई लोग इस हिंसा में जान से हाथ धो बैठे हैं। हर समुदाय में अच्छे-बुरे, दोनों तरह के लोग हैं। लोग वो भी थे, जिन्होंने मुझे जानबूझकर दंगाइयों का शिकार होने भेज दिया था और वो भी थे जिन्होंने मुझे अस्पताल पहुंचा दिया। मैं दोनों में से किसी को नहीं जानता। बस इतना जानता हूं कि एक ने मेरी जान लेनी चाही तो दूसरे ने जान बचा ली।'
मोहम्मद जुबैर कहते हैं- जिन्होंने मुझे दंगाइयों का शिकार होने भेजा वे भी इंसान थे और जिन्होंने मेरी जान बचाई वे भी इंसान ही थे