मन के कोने से सफलता के शिखर तक अपराजिताएं

इंदौर । शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र हो जहां आज नारी का नाम स्वर्णिम अक्षरों में नहीं लिखा गया हो। देश की महान नारियों के बारे में तो सभी जानते हैं जिन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में कीर्तिमान स्थापित किए। शहर में भी ऐसी कई शख्सियतें हैं जिन्होंने समाज के सामने उदाहरण पेश किए। शिक्षा, खेल, उद्योग, परिवार, समाज, राजनीति, प्रशासन आदि तमाम क्षेत्रों में शहर की महिलाओं ने अपना नाम दर्ज कराया है। ऐसी ही चंद महिलाओं से हम आज आपको रूबरू करा रहे हैं जिन्होंने अपने लिए नहीं बल्कि अपनों के लिए काम कर एक अलग पहचान बनाई।


** अपराजिता **


मां की सीख देती रही हिम्मत


जब से होश संभाला मां को बीमार पाया। घर में हम बहनें ही थी। बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। तब लगा कि यदि हमने भी शादी कर ली तो माता-पिता का ध्यान कौन रखेगा। जीवन का पहला अहम फैसला यही लिया कि माता-पिता की सेवा के लिए विवाह नहीं करेंगे। यह कहना है मनोरमा और रूकमणी साहू का जिन्होंने कई ऐसे उदाहरण पेश किए जो समाज के लिए प्रेरणादायक हैं। उच्चश्रेणी शिक्षक के पद से सेवानिवृत्त मनोरमा बताती हैं पिता के निधन के बाद परिवार में यह प्रश्न आया कि उन्हें मुखाग्नि कौन देगा। घर में दामाद, भांजे, चाचा सब थे। तब चाचाजी ने कहा कि जब सेवा बेटियों ने की है तो अंतिम संस्कार भी वे ही करेंगी और हमने यह दायित्व भी निभाया। बचपन से ही मां ने ईमानदारी से कर्तव्यों के निर्वहन की सीख दी जो संघर्ष में हिम्मत देती है। मन के किसी कोने में यह बात थी कि ऐसा प्रयास किया जाए ताकि दूसरों का उपचार कर सकूं। तब मैंने योग का प्रशिक्षण लेकर योग सिखाना शुरू किया, ताकि बगैर पैसा खर्च किए लोग स्वास्थ्य लाभ पा सकें।


 

** कामयाबी की कमान **


संस्थान नहीं सामाजिक सरोकार ने दी जिम्मेदारी


ओल्ड जीडीसी में होम साइंस विभाग की प्रो. बेला सचदेवा ने 23 साल पहले दिव्यांग (दृष्टिहीन) छात्राओं को बेहतर शिक्षा देने के लिए मदद का जो प्रयास शुरू किया आज उसमें 500 से ज्यादा छात्राएं जुड़ चुकी हैं और चेन्नाई की संस्था ने भी इस प्रयास में उनका हाथ थाम लिया है। यह जिम्मेदारी उन्हें संस्थान ने कभी नहीं सौंपी थी पर निज प्रयास को संस्थान ने भी थपथपाया। प्रो. बेला बताती हैं 23 साल पहले उनकी मुलाकात दिव्यांग छात्रा मंजू पटेल से हुई थी। उसकी प्रतिभा और समस्या को देख लगा कि इनके लिए काम करना चाहिए। ऐसी छात्राओं को कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए प्रोत्साहित किया। जब उन्होंने एडमिशन लिया तो लेक्चर रिकॉर्ड कर उन्हें कॉलेज के बाद पढ़ने की सुविधा दी। सामान्य छात्राओं को उनकी मदद के लिए प्रोत्साहित कर 15 साल पहले ब्लांइड हेल्पलाइन सेल बनाई। वर्तमान में चेन्नाई की संस्था 'हेल्प द ब्लाइंड फाउंडेशन' के साथ एमओयू साइन कर इन छात्राओं को कंप्यूटर और इंग्लिश का प्रशिक्षण, छात्रवृत्ति और प्लेसमेंट दिया जा रहा है।


 

** मन का कोना **


खेल और लड़कियों को आगे बढ़ाऊं


सुबह और शाम को चिमनबाग ग्राउंड तथा दोपहर में वाणिज्यकर विभाग की नौकरी। ग्राउंड पर जाने का मकसद केवल खुद की प्रेक्टिस नहीं, बल्कि कोशिश सॉफ्टबॉल में अगली पौध तैयार करने की। विक्रम अवार्ड से सम्मानित सविता पारखे 2011 से लड़कियों को निःशुल्क सॉफ्टबॉल का प्रशिक्षण दे रही हैं। वे बताती हैं कि मन के कोने में हमेशा एक बात रही कि खेल और खेल के जरिए लड़कियों को आगे बढ़ाऊं। इसलिए मैंने शादी भी नहीं की और जब नौकरी लग गई तो सोचा कि अब महिला खिलाड़ियों के लिए कुछ करना चाहिए। तब जरूरतमंद परिवार की लड़कियों को खेल का प्रशिक्षण देना शुरू किया। आज गर्व होता है जब मेरी 15 प्रशिक्षणार्थी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलकर आ चुकी हैं। यही नहीं एशियन वुमन सॉफ्टबॉल चैंपियनशिप में एक खिलाड़ी चौथा स्थान प्राप्त कर चुकी है।


** उद्योग जननी **


प्रयास मत छोड़ो रास्ते आसान हो जाएंगे


जब मैं मां बनने वाली थी तब किसी कॉम्प्लीकेशन की वजह से डॉक्टर ने मुझे बेड रेस्ट का कह दिया था। तब मैंने बिजनेस करने का निर्णय लिया और मेरी सास ने इस निर्णय में मेरा साथ दिया। उन्होंने यही कहा कि कितनी ही मुश्किलें आएं तो भी प्रयास मत छोड़ना रास्ता अपने आप आसान हो जाएगा। यह कहना है श्रेष्ठा गोयल का जो दो फार्मास्यूटिकल मेन्युफेक्चरिंग कंपनी की डायरेक्टर और संस्थापक हैं। इसके साथ वे वुमन एम्पॉवरमेंट के लिए एडवेंचर वुमन ग्रुप और आंत्रप्रेन्योर ग्रुप भी संचालित कर रही हैं। श्रेष्ठा बताती हैं 20 साल पहले शुरू किए गए इस बिजनेस में मैंने यह अनुभव किया कि इस क्षेत्र में अधिकांश पुरुष ही होते हैं और उनके साथ जब बिजनेस डील करनी होती है तो यह यकीन दिलाना कई बार मुश्किल हो जाता है कि मैं ही कंपनी की डायरेक्टर हूं और मेरे द्वारा ही अंतिम निर्णय लिया जाएगा। बच्चे, परिवार और बिजनेस तीनों में तालमेल मिलाकर चलना मुश्किल हो जाता है पर सही मैनेजमेंट के जरिए यह परेशानी कम हो जाती है।


** सफर संघर्ष का **


बच्चों के चेहरे पर मुस्कान देख मिलती है खुशी


दूसरों की मदद करना मुझे शुरू से ही पसंद है। घर के आसपास रहने वाले जरूरतमंद या दिव्यांग बच्चे जब मदद मांगते थे तो मुझे अच्छा लगता था। जिला शिक्षा केंद्र में असिस्टेंट प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर बनने के बाद ऐसे कई बच्चे मेरे संपर्क में आए और मैंने सक्रिय रूप से उनके लिए काम करना शुरू किया। एक एक्सीडेंट के बाद डॉक्टर्स ने भी मेरे स्वस्थ होने की उम्मीद छोड़ दी थी तब ये ही बच्चे मेरे लिए दुआ करने लगे और मैं स्वस्थ हो गई। तब लगा कि अब इनके लिए ही काम करना है और 7 साल पहले 'आसरा' नाम से संस्था बनाई। जहां कलेक्टर के जरिए भेजे गए 30 अनाथ बच्चे रह रहे हैं और 30 ऐसे बच्चे यहां प्रशिक्षण प्राप्त करने आते हैं जो या तो दिव्यांग हैं या निचली बस्ती में रहते हैं। आज मेरी नौकरी गांव के एक शासकीय विद्यालय में लग गई है ऐसे में दिन में पति इन बच्चों की जिम्मेदारी निभाते हैं और शाम को मैं। जीवन में संघर्ष नहीं मिले पर बच्चों के चेहरे पर मुस्कुराहट देख खुशी मिलती है।