निकाय चुनावों में देरी, मध्य प्रदेश सरकार पर कई सवाल


निकाय चुनावों में देरी, मध्य प्रदेश सरकार पर कई सवाल







भोपाल / मध्य प्रदेश के सभी नगरीय निकायों में जनप्रतिनिधियों यानी पार्षदों, महापौर या नगरपालिका अध्यक्षों का कार्यकाल कुछ ही दिनों में खत्म हो जाएगा। वर्ष 1994 के बाद यह पहला मौका है जब प्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव समय पर नहीं हो पा रहे हैं। इसकी बड़ी वजह राज्य सरकार द्वारा निकाय चुनावों को लेकर की गई तैयारियों का अधूरा होना है। दरअसल, मामला वार्डों के परिसीमन में ही अटका हुआ है तो दूसरी ओर भाजपा के वर्चस्व वाली निकायों को कांग्रेस हथियाना चाहती है। लिहाजा निकायों में जोड़तोड़ से सत्ता हासिल करने की भी अघोषित रूपरेखा भी तैयार की गई है। परिसीमन को लेकर दो दर्जन से अधिक मामले हाई कोर्ट में विचाराधीन हैं। राज्य निर्वाचन आयोग सरकार की हरी झंडी का इंतजार कर रहा है।

गौरतलब है कि संविधान के 73 व 74 वें संशोधन के बाद मप्र राज्य निर्वाचन आयोग को निकायों के चुनावों की जिम्मेदारी मिली थी। वर्ष 2015 में परिसीमन के कारण भोपाल समेत कुछ नगरीय निकायों में चुनाव देरी से हुए थे। विशेषज्ञों का मानना है कि राज्य सरकार नगरीय निकायों पर कब्जा करने के लिए सोची- समझी रणनीति के तहत काम कर रही है। इसमें निकायों के कार्यकाल खत्म होने का इंतजार किया जा रहा है। इसके बाद नगरीय विकास एवं आवास विभाग संबंधित निकायों के संचालन की जिम्मेदारी प्रशासक के रूप में अधिकारियों को सौंप रहा है। इस तरह, एक प्रकार से निकायों पर पूरी तरह से नियंत्रण राज्य सरकार का ही होगा। जबकि नियमों में यह बात साफ कही गई है कि निकायों के कार्यकाल खत्म होने से पहले ही इसकी चुनाव प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए।

दो भागों में बांटने की राजनीति पर हाई कोर्ट का स्टे:- 

निकाय (भोपाल नगर निगम) को दो भागों में विभाजित करने के मामले पर हाई कोर्ट ने स्थगन दे दिया है। हालांकि राज्य सरकार का यह गणित वोटों के बंटवारे के लिए था, इसमें भी नियमों को ताक पर रखकर काम किया गया। हाई कोर्ट की इंदौर खंडपीठ ने इससे जुड़े एक मामले में प्रदेश सरकार को झटका दे दिया। नगरीय विकास एवं आवास विभाग की ओर से राजपत्र जारी किया गया था। इसमें नगरीय निकायों की सीमाओं में बदलाव को लेकर सूचना संबंधित अधिकार कलेक्टर को दिए गए थे। प्रावधानों के मुताबिक शहरी सीमा में किसी भी क्षेत्र को जोड़ने या घटाने को लेकर अधिकार राज्यपाल का होता है। इसी विसंगति पर हाई कोर्ट ने स्थगन दे दिया।

राज्य सरकार की तैयारी पर सवाल:-

नगरीय निकाय के चुनावों की अधूरी तैयारी को लेकर सरकार की मंशा पर भी कई सवाल खड़े हो रहे हैं। नगरीय विकास एवं आवास विभाग के आंकड़ों के मुताबिक प्राप्त प्रस्तावों के आधार पर 70 निकायों में वार्ड परिसीमन का काम पूरा हो चुका है। उधर, विभाग में अभी तक परिसीमन के प्रस्ताव आ रहे हैं। इसके अलावा नगरीय विकास एवं आवास विभाग ने कलेक्टरों से संबंधित निकायों की वार्डों की संख्या संबंधित अधिसूचना का प्रतिवेदन, वर्ष 2011 की जनगणना के तहत कुल जनसंख्या, वार्डवार जनसंख्या, वार्डवार अनुसूचित जाति व जनजातियों की जनसंख्या की जानकारी मांगी है। विभागीय अधिकारियों ने बताया कि जब तक परिसीमन का काम नहीं होगा तब तक आरक्षण संबंधित कार्रवाई पूरी नहीं हो सकेगी।

अब तक कुल 278 नगरीय निकायों में प्रशासक नियुक्त:-

प्रदेश में बीते एक महीने में कुल 278 नगरीय निकायों में प्रशासक नियुक्त किए जा चुके है। इसमें भोपाल की बैरसिया नगर परिषद का नाम भी शामिल है। प्रदेश में कुल 378 नगरीय निकाय हैं। नगरीय विकास एवं आवास विभाग द्वारा शेष 100 नगरीय निकायों में भी प्रशासकों की नियुक्ति की तैयारी की जा रही है। प्रशासक के रूप में संभागीय कमिश्नर, कलेक्टर व अनुविभागीय अधिकारियों (राजस्व) को संबंधित निकायों की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है।

प्रशासक यानी जनता की सरकार न होना:- 

जानकारों के मुताबिक प्रशासक केवल कामों की देखरेख करता है। नीतिगत निर्णय नहीं ले सकता मतलब नए प्रोजेक्ट व पुरानी घोषणाओं पर अमल नहीं हो पाता है। प्रशासक राज्य सरकार का प्रतिनिधि होता है यानी वह व्यवहार में राज्य सरकार की बात ज्यादा सुनेगा। इसके अलावा कई मुद्दों पर निर्णय के लिए जनप्रतिनिधियों के बीच चर्चा नहीं होगी। विपक्ष के न होने से विरोध या सुधार की गुंजाइश भी कम रहेगी।

विपक्ष की भूमिका में कमजोर दिख रही भाजपा:- 

निकायों पर फतह हासिल करने के लिए प्रदेश की कांग्रेस सरकार पूरा जोर लगा रही है। वहीं, नियमों में फेरबदल व अन्य बदलावों पर भाजपा नेताओं की सिर्फ बयानबाजी ही सामने आई है। स्थानीय स्तर पर नगर निगम के बंटवारे, महापौर के अप्रत्यक्ष चुनाव जैसे मामले पर विरोध हुआ लेकिन इसे प्रदेश स्तरीय मुद्दा बनाने में भाजपा नाकाम नजर आई।

नई व्यवस्था : पार्षद चुनेंगे महापौर:-

अब तक प्रदेश में निकाय चुनावों में पार्षद और महापौर के लिए अलग-अलग मतदान होता था यानी एक मतपत्र पार्षद के लिए होता था तो दूसरा महापौर या नगरपालिका अध्यक्ष के लिए। राज्य सरकार ने यह व्यवस्था बदलकर महापौर का चुनाव अप्रत्यक्ष कर दिया है यानी निर्वाचित पार्षद महापौर चुनेंगे। सरकार ने इस फैसले को हरी झंडी दे दी है। संगठन स्तर पर हुए विचार मंथन के बाद राज्य सरकार ने इस पर निर्णय लिया था। फॉर्मूला यह था कि वोट के आधार पर निकायों के विभाजन से कांग्रेस पार्षदों की संख्या में इजाफा होता, लिहाजा ज्यादा से ज्यादा निकायों में महापौर या नपा अध्यक्ष भी कांग्रेस के ही होते।

इनका कहना है:-

नियमों के मुताबिक सरकार को निकायों के कार्यकाल खत्म होने के छह माह पहले से ही चुनावों की तैयारी कर लेनी चाहिए थी। देरी को देखते हुए मप्र राज्य निर्वाचन आयोग को भी पहल करना चाहिए थी। कुछ नगरीय निकाय का मामला कोर्ट में है पर बाकी निकायों के चुनाव में देरी नहीं होनी चाहिए। नगरीय निकायों की हालत प्रदेश में वैसे भी बेहतर नहीं है। प्रशासक बैठा देने से क्या होगा? 

-निर्मला बुच, पूर्व मुख्य सचिव, मप्र-

 

लोकसभा चुनावों की करारी हार के बाद कांग्रेस निकाय चुनावों में जनता का सामना करने की स्थिति में नहीं है। यही कारण है कि कांग्रेस की सरकार प्रदेश में चुनावों को टाल रही है। लोगों में इसे लेकर नाराजगी है। अप्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव, चुनावों को टालना और परिसीमन में षड्यंत्र किया जा रहा है। भाजपा तत्काल चुनाव कराने की मांग करती है। 

-रजनीश अग्रवाल, प्रदेश प्रवक्ता, भाजपा-

 

परिसीमन के कारण निकाय चुनावों में देरी हो रही है। कई मामले कोर्ट में हैं। भाजपा ने ही इन मामलों को कोर्ट में लगाया है। विकास व जनता के हित में ही सरकार ने निर्णय लिए हैं। चुनावों से कांग्रेस को नहीं बल्कि भाजपा को समस्या है। संगठन के साथ सरकार भी चुनावी मामलों पर कार्रवाई कर रही है। भाजपा विकास के काम में अड़ंगा लगाने का काम करती है। 




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