इस इंसान ने शाहीनबाग में लंगर के लिए अपना फ्लैट बेच दिया है ताकि उस पैसे से लंगर चालू रखा जा सके

इस इंसान ने शाहीनबाग में लंगर के लिए अपना फ्लैट बेच दिया है ताकि उस पैसे से लंगर चालू रखा जा सके





नईदिल्ली / पूछते हैं शाहीनबाग की फंडिंग कहाँ से आ रही है. कौन बिरयानी खिला रहा है, कौन पानी के पैसे दे रहा है. पहले इस आदमी को देखिए. इनका नाम D.S. बिंद्रा है. इन फोटोज को ज़ूम करिए, बिंद्रा के चेहरे पढ़िए. एक सब्र जैसा कुछ तो दिख होगा!..अब ठहरिए, इस इंसान ने शाहीनबाग में चलने वाले लंगर के लिए अपना फ्लैट बेच दिया है. ताकि उस पैसे से लंगर चालू रखा जा सके, जहां दोनों मजहबों के आदमी-औरतों के पेट तक रोटी-चावल पहुंच सकें।

बीस दिन पहले कुछ सिख भाई पंजाब से शाहीनबाग पहुंचें, अब तक 17 बसें शाहीनबाग में डेरा जमाए हुए हैं. एक खास जगह पर तो मुसलमानों से ज्यादा सिख दिखाई दे रहे हैं. बीस दिन पहले एक लंगर शुरू हुआ. करीब 50 हजार से अधिक लोगों के भोजन इंतजाम वहां होता है. सिख धर्म में एक परम्परा में है कि जो एकबार लंगर शुरू हुआ, तो खत्म नहीं होता, रुकता नहीं है, उसकी कीमत चाहे जो हो. धीरे धीरे सब पैसे बीत गए, लंगर चलाने के लिए पैसों की जरूरत हुई, बिंद्रा के पास 3 फ्लैट थे. तुरंत ही बिना अधिक सोचे बिचारे बिंद्रा ने अपना एक फ्लैट बेच दिया. घर वालों ने शुरू में कुछ विरोध किया. लेकिन अब सब साथ आ गए हैं, बेटा कह रहा है "पापा प्राउड ऑफ यु", आपने वो काम किया है जिसपर गर्व हो रहा है. आज बीबी साथ है, भाई-बेटा साथ हैं. लंगर पर रोटी-पानी के इंतजाम में जमे हुए हैं।

ये आदमी कह रहा है यदि जरूरत पड़ी तो बाकी के बचे दो फ्लैट भी बेच दूंगा, लेकिन लंगर नहीं रुकेगा. इस कहानी को जानने के बाद मुझे भामाशाह की याद आ रही है, जिन्होंने अपने पूरे जीवन की संपत्ति महाराणा प्रताप को सौंप दी थी, ताकि महाराणा वतन की रक्षा कर सकें, ताकि सम्मान की लड़ाई रुकने न पाए, स्वशासन की लड़ाई रुकने न पाए... यहां भी स्वाभिमान, संविधान और वतन की लड़ाई इस मुल्क की औरतें लड़ रही हैं. जिसे रुकने न देने की जिम्मेदारी बिंद्रा जैसे अनगिनत लोगों ने अपने कंधों पर ले रखी है।

यदि अगली बार आपसे कोई शाहीनबाग की फंडिंग पर सवाल करे तो बताना एक सिख भाई ने अपना फ्लैट तक बेच दिया है, और ऐसे ही अनगिनत ईमान रखने लोग शाहीनबाग के साथ खड़े हुए हैं. जो जितना सक्षम है उतनी मदद के कर जाता है, कोई घी दे जा रहा है, कोई चावल, कोई गेहूं.... कोई गैस सिलेंडर.

अल्लामा इक़बाल, ऐसे ही नहीं कह गए हैं-

"यूनान ओ मिस्र ओ रूमा सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा"